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" उसका हाथ काँप रहा था, उसका सिर ऊपर न उठ सका, मुँह से एक शब्द न निकला, जैसे अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है। आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है कि मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो आता है, उसके मुँह पर थूक देता है। वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, भाइयो मैं दया का पात्र हूँ मैंने नहीं जाना जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है? इस देह को चीरकर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना ज़ख़्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ! उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किये, कभी तू छाँह में बैठा। उस पर यह अपमान! "
― Munshi Premchand , गोदान [Godaan]